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मानवता और आत्मीयता

कुछ चीजें आपको झकझोर कर रख देती है, देखते और सुनते वक्त, आप तत्क्षण कुछ कर गुजरने को तैयार होते हैं, पर समय का पहिया पुनः आपको आपकी वास्तविक स्थिति पर ले आती है, जहाँ आप ये टीस महसूस करते हैं कि "क्यों इन परिस्थितियों को बदलना मेरे हाथ में नहीं है,क्यों मेरे हाथ आसक्त हैं" पर आप उस समय अपना सर्वस्व लुटाकर भी कुछ नहीं कर सकते, बस नियति का होना मन से मान लेना पड़ता है... मैं इसे किसी राजनीतिक गलियारों में लेकर नहीं जाना चाहता, न इसे मैं लोकतांत्रिक देश में सरकार की असफलता का श्रेय देना चाहता हूँ और न ही एक विपक्ष के लिए एक नए मुद्दे की तलाश के नजरिए से रंगना चाहता हूँ... इसे मैं सिर्फ मानवता और आत्मीयता से अपना मानने की भाव से जोड़ना चाहता हूँ, उनके दुःख की समानुभूति करवाना चाहता हूँ और उनके प्रति सहानुभूति का अहसास करवाना चाहता हूँ... क्या वाकई में हम इतने ज्ञानी होकर भी उनके तकलीफ़ को समझ पाए? यह सवाल ऐसे परिदृश्यों को देखकर उठता ही उठता है, जो आज के व्यवसाय रूपी शिक्षा पद्धति पर एक बड़ा प्रश्नचिन्ह लगा देती है, कल ही एक किताब पढ़ी थी, कन्हैयालाल मिश्र "प्रभाकर" जी